Saturday 24 January 2015

आहारदान महिमा की कहानी

भोगवती नगरी के राजा कामवृष्टि की रानी मिष्टदाना के गर्भ में पापी बालक के आते ही राजा की मृत्यु हो गई और राजा के नौकर सुकृतपुण्य के हाथ में राज्य चला गया। माता ने बालक को पुण्यहीन समझकर उसका नाम ‘अकृतपुण्य’ रख दिया और परायी मजदूरी करके उसका पालन किया। किसी समय बालक सुकृतपुण्य के खेत पर काम करने के लिए चला गया। राजा ने उसे अपने स्वामी का पुत्र समझकर बहुत कुछ दीनारें दीं किन्तु उसके हाथ में आते ही अंगारे हो गर्इं। तब उसको उसकी इच्छानुसार चने दे दिये। माता ने इस घटना से देश छोड़ दिया और सीमवाक गांव के बलभद्र नामक जैन श्रावक के यहाँ भोजन बनाने का काम करने लगी। सेठ के बालकों को खीर खाते देखकर वह अकृतपुण्य भी खीर मांगा करता था। तब एक दिन सेठ के लड़कों ने बालक को थप्पड़ों से मारा। सेठ ने उक्त घटना को जानकर बहन मिष्टदाना को खीर बनाने के लिए सारा सामान दे दिया। माता ने खीर बनाकर बालक से कहा-बेटा! मैं पानी भरने जाती हूँ, इसी बीच में यदि कोई मुनिराज आवें तो उन्हें रोक लेना, मैं मुनिराज को आहार देकर तुझे खीर खिलाऊँगी। भाग्य से सुव्रत मुनिराज उधर आ गये। बालक ने कहा-मुनिराज! आप रुको, मेरी माँ ने खीर बनाई है, आपको आहार देंगी। मुनिराज के न रुकने से बालक ने जाकर उनके पैर पकड़ लिये और बोला-‘देखूँ अब कैसे जाओगे?’

उधर माता ने आकर पड़गाहन करके विधिवत् आहार दिया। बालक आहार देख-देखकर बहुत प्रसन्न हो रहा था। मुनिराज अक्षीण ऋद्धिधारी थे। उस दिन खीर का भोजन समाप्त ही नहीं हुआ। तब मिष्टदाना ने सपरिवार सेठ जी को, अनंतर सारे गाँव को जिमा दिया, फिर भी खीर ज्यों की त्यों रही। अगले दिन बालक वन में गाय चराने गया था। वहाँ उसने मुनि का उपदेश सुना। रात्रि में व्याघ्र ने उसे खा लिया। आहार देखने के प्रभाव से वह अकृतपुण्य मरकर स्वर्ग में देव हो गया।

पुन: उज्जयिनी नगरी के सेठ धनपाल की पत्नी प्रभावती के धन्य कुमार नाम का पुण्यशाली पुत्र हो गया। जन्म के बाद नाल गाड़ने को जमीन खोदते ही धन का घड़ा निकला। धन्यकुमार जहाँ-जहाँ हाथ लगाता, वहाँ धन ही धन हो जाता था। आगे चलकर यह धन्यकुमार नवनिधि का स्वामी हो गया और असीम धन वैभव को भोगकर पुन: दीक्षा लेकर अंत में सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र पद पाया। यह है आहार दान का प्रभाव! जिससे महापापी अकृतपुण्य धन्य- कुमार हो गया।

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