Wednesday 13 May 2015

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गौसेवा से बदला भाग्य

गौसेवा से बदला भाग्य
गौसेवा से बदला भाग्य


गौसेवा से बदला भाग्य
गीताप्रेस गोरखपुर की 'कल्याण पत्रिका में छपी यह एक किसान के जीवन की सत्य घटना है। उसने लिखा है – मेरे पूर्वज गाँव में सदा सम्पन्न रहे। मेरे पिता जी का जीवन भी उन्नत रहा। उनकी ईश्वर उपासना और गौ सेवा में विशेष रूचि थी। इससे घर में खूब सम्पन्नता थी। पिता जी के बाद गृहस्थी की सारी जिम्मेदारी मुझ पर आ गयी किंतु मैं न तो गायों की देखभाल करता और न ही ईश्वर के लिए समय निकालता। खेती से अन्न कम होने लगा और अधिकांश जमीन परती पड़ गयी। पैसे आने बंद हो गये। देखते देखते सारा काम चौपट हो गया। भाग्य ने जैसे मेरा साथ ही छोड़ दिया था। मैं जिस कार्य में हाथ डालता, उसमें असफल होता। मेरे दोनों भाई भी अपना अपना हिस्सा लेकर अलग हो गये। मेरे ऊपर काफी कर्ज हो गया। लोग मुझे निरूद्यमी और आलसी कहने लगे। मेरे लिए दर-दर की ठोकरें खाने की नौबत आ गयी।
एक रात मैंने सपने में देखा कि गाय बैल मुझे मारने दौड़ रहे हैं और मनुष्य की भाषा में कह रहे हैं कि "अभी तुझे हमारी और भी आह झेलनी पड़ेगी। तूने अपने खाने पीने के सिवा कभी हमारी भी खबर ली है कि हम भूखे हैं या प्यासे ? गौशाला में कभी आकर देखा है कि वह साफ है या हम गोबर मूत्र में पड़े हैं ? इसी पाप का फल तू भोग रहा है। अब भी चेत जा और अपना मार्ग बदल दे नहीं तो अंततः तेरा सर्वनाश हो जायेगा।"



मैं चौंककर जाग उठा। देखा, यह तो स्वप्न था। रात्रि बीतने वाली थी पर उसके पहले मेरे जीवन की रात्रि बीत गयी। मैं उसी समय लालटेन लेकर गौशाला में गया। वहाँ देखा, सभी गाय-बैल भूखे-प्यासे खूँटे से बँधे हैं। उनके आगे घास भूसे का एक तिनका भी नहीं था। कूड़े का ढेर लगा था। मैं मन ही मन पश्चाताप करने लगा। मैंने उसी क्षण गौशाला को साफ करना शुरू किया और दिन के दस बजे तक लगा रहा। उस दिन से मैं गौशाला पर ध्यान रखने लगा। सुबह शाम गौदुग्ध अपने हाथ से दुहना और चारा घास एवं स्वच्छ जल अपने सामने डलवाना मेरा मुख्य कर्तव्य हो गया। कूड़ा करकट अलग गड्ढे में डालता और उसकी अच्छी खाद बनती। गाय बैल सुखपूर्वक रहने लगे और स्वस्थ व हृष्ट-पुष्ट हो गये। घी-दूध पर्याप्त मिलने लगा। मेरी कृषि चमक उठी और अनाज पाँच-छः गुना उत्पन्न होने लगा। ऋण भी अधिकांश चुका दिया। मेरी स्थिति में काफी परिवर्तन हो गया। मुझे निरूद्यमी, आलसी और अभागा कहने वाले लोग अब प्रशंसा करने लगे।

यह घटना बिल्कुल सच्ची है। रईसी के चक्कर में मैं अपनी सम्पत्ति का नाश कर चुका था, किंतु ईश्वर की कृपा, गौमाता की सेवा और उनके आशीर्वाद से मेरी दशा अत्यन्त सुंदर हो गयी। यदि कोई कृषक भाई मेरी तरह दरिद्रता के शिकार हो गये हों तो उन्हें मेरे पथ का अनुसरण करना चाहिए। मैं डंके की चोट पर कहता हूँ कि भगवान पर विश्वास और गौमाता की सेवा से बुरी से बुरी हालत बदलकर अच्छी हो जायेगी।
गाश्च शुश्रूषते यश्च समन्वेति च सर्वशः।
तस्मै तुष्टाः प्रयच्छन्ति वरानपि सुदुर्लभनाम्।।
जो पुरुष गौओं की सेवा करता है और सब प्रकार से उनका अनुगमन करता है, उस पर संतुष्ट होकर गौएँ उसे अत्यंत दुर्लभ वर प्रदान करती हैं।
महाभारत में भी आता हैः गावः कामदुहो देव्यो।
गौएँ समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली देवियाँ हैं।
महाभारत, अनु. पर्व-दानधर्म पर्वः 51.33
स्रोतः लोक कल्याण सेतु

Saturday 24 January 2015

आहारदान महिमा की कहानी

भोगवती नगरी के राजा कामवृष्टि की रानी मिष्टदाना के गर्भ में पापी बालक के आते ही राजा की मृत्यु हो गई और राजा के नौकर सुकृतपुण्य के हाथ में राज्य चला गया। माता ने बालक को पुण्यहीन समझकर उसका नाम ‘अकृतपुण्य’ रख दिया और परायी मजदूरी करके उसका पालन किया। किसी समय बालक सुकृतपुण्य के खेत पर काम करने के लिए चला गया। राजा ने उसे अपने स्वामी का पुत्र समझकर बहुत कुछ दीनारें दीं किन्तु उसके हाथ में आते ही अंगारे हो गर्इं। तब उसको उसकी इच्छानुसार चने दे दिये। माता ने इस घटना से देश छोड़ दिया और सीमवाक गांव के बलभद्र नामक जैन श्रावक के यहाँ भोजन बनाने का काम करने लगी। सेठ के बालकों को खीर खाते देखकर वह अकृतपुण्य भी खीर मांगा करता था। तब एक दिन सेठ के लड़कों ने बालक को थप्पड़ों से मारा। सेठ ने उक्त घटना को जानकर बहन मिष्टदाना को खीर बनाने के लिए सारा सामान दे दिया। माता ने खीर बनाकर बालक से कहा-बेटा! मैं पानी भरने जाती हूँ, इसी बीच में यदि कोई मुनिराज आवें तो उन्हें रोक लेना, मैं मुनिराज को आहार देकर तुझे खीर खिलाऊँगी। भाग्य से सुव्रत मुनिराज उधर आ गये। बालक ने कहा-मुनिराज! आप रुको, मेरी माँ ने खीर बनाई है, आपको आहार देंगी। मुनिराज के न रुकने से बालक ने जाकर उनके पैर पकड़ लिये और बोला-‘देखूँ अब कैसे जाओगे?’

उधर माता ने आकर पड़गाहन करके विधिवत् आहार दिया। बालक आहार देख-देखकर बहुत प्रसन्न हो रहा था। मुनिराज अक्षीण ऋद्धिधारी थे। उस दिन खीर का भोजन समाप्त ही नहीं हुआ। तब मिष्टदाना ने सपरिवार सेठ जी को, अनंतर सारे गाँव को जिमा दिया, फिर भी खीर ज्यों की त्यों रही। अगले दिन बालक वन में गाय चराने गया था। वहाँ उसने मुनि का उपदेश सुना। रात्रि में व्याघ्र ने उसे खा लिया। आहार देखने के प्रभाव से वह अकृतपुण्य मरकर स्वर्ग में देव हो गया।

पुन: उज्जयिनी नगरी के सेठ धनपाल की पत्नी प्रभावती के धन्य कुमार नाम का पुण्यशाली पुत्र हो गया। जन्म के बाद नाल गाड़ने को जमीन खोदते ही धन का घड़ा निकला। धन्यकुमार जहाँ-जहाँ हाथ लगाता, वहाँ धन ही धन हो जाता था। आगे चलकर यह धन्यकुमार नवनिधि का स्वामी हो गया और असीम धन वैभव को भोगकर पुन: दीक्षा लेकर अंत में सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र पद पाया। यह है आहार दान का प्रभाव! जिससे महापापी अकृतपुण्य धन्य- कुमार हो गया।

Friday 23 January 2015

दान की महिमा की एक कहानी...

एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल लिए। टोटके या अंधविश्वास के कारण भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देख कर दूसरों को लगता है कि इसे पहले से किसी ने दे रखा है।

पूर्णिमा का दिन था, भिखारी सोच रहा था कि आज ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी।
...
अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती दिखाई दी। भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा, राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से सारे दरिद्र दूर हो जाएंगे, जीवन संवर जाएगा। जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई।

जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रुकवाया, उतर कर उसके निकट पहुंचे। भिखारी की तो मानो सांसें ही रुकने लगीं। लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उलटे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और भीख की याचना करने लगे। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुन: याचना की।

भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला, मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था। जैसे-तैसे कर उसने दो दाने जौ के निकाले और उन्हें राजा की चादर पर डाल दिया।

उस दिन भिखारी को रोज से अधिक भीख मिली, मगर वे दो दाने देने का मलाल उसे सारे दिन रहा। शाम को जब उसने झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। जो जौ वह ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। उसे समझ में आया कि यह दान की ही महिमा के कारण हुआ है।

वह पछताया कि काश! उस समय राजा को और अधिक जौ दी होती, लेकिन नहीं दे सका, क्योंकि देने की आदत जो नहीं थी।